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Dr.Ankit Waghela

Drama

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Dr.Ankit Waghela

Drama

जोकर

जोकर

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अक्सर यही सोचता हूं

में हर महीने के आखर मैं

शाश्वत शहर में आकर में

ये सपने छोटे कर लूं,

या रोटी छोटी कर लूं !


अक्सर यही सोचता हूं

ये जो कालिख पोत दी है ज़हन में

परत सी जमी है जमानेके हनन से

घुल गया है अब जो रंगरेज मेरे ये

स्याह रंग है,लगे ध्ब्बो का या

बचे कूछ हब्शी ख्वाबों का !


अक्सर यही सोचता हूं

ये शय्या सुख जो तूने चुना है

नफ़ीस मेरे नफ़स का जो बुना है

ये भूख मेरे पेट की मिटाने,

या भूख तेरे हवस की भगाने !


अक्सर यही सोचता हूं

और फिर तमाशे करने जमाने में

निकल पड़ा हूं, ज़िंदा लाशों में !

ज़िंदगी भी एक सर्कस ही तो है !

अब जोकर बनकर भूख मिटाने लगा हूं !


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