जलती रही रह रह कर
जलती रही रह रह कर
मैंने सुना नहीं कभी अपने आत्मा की आवाज़
मगर! जलती रही रह - रह कर रोज वफ़ा के आग में
यूँ ही नाज़ करती थी मैं अपने निज़ाम पर
मगर! ख़ुद की मर्म को ढूंढ़ती रही लोगों के मिज़ाज में
किसी ने मुझे मुमताज़ कहा तो किसी ने कहा हीर
मगर! मैं ढूँढती रही खुद की वजूद तक़दीर के लकीर में
लोग मुख पर मुखौटा लेकर, करते रहे सौदा मेरे जिस्म का
जकड़ा था पाँव जंजीर से, फिर भी बिकती रही रोज बाजार में
जो कहते थे मुझे परी, आज वही कहने लगे हैं चरित्रहीन
मगर! कई सवालों के जवाब, मैं ढूंढ़ती रही दामन के दाग में