जुबां ख़ामोशी ओढ़े...
जुबां ख़ामोशी ओढ़े...
जुबां ख़ामोशी ओढ़े खड़ी थी दीदार ए यार के इंतजार में।
चश्म - ओ - चराग बुझ गया आब - ए - चश्म के धार में।।
शौहरत - ए - 'आम हुए हम जाँ - निसार के प्यार में।
वक़्त बढ़ता गया, वो बदलती गई हसरतों के बाज़ार में।।
दिल के करीब आकर भी, दिल से दूर होती रही तक़रार में।
हम सहते रहे तपिश आफ़ताब का, सिर्फ़ चाँद के दीदार में।।
खड़े थे कई खरीददार खरीदने को जिस्म ज़ुर्म के आर में।
हम भी खड़े थे कहीं, लेकर पैग़ाम -ए- मोहब्बत एतबार में।।
गर! हम कातिब ना होते तो होते क़ातिल इश्क़ के वार में।
और निर्दोष होते वे लोग जो अक्सर छपते हैं अख़बार में।।