शाम भी बहक जाती है...
शाम भी बहक जाती है...
मदकते चाँद को देखकर, कभी शाम भी बहक जाता।
अक़्सर शबाब ओ शाम में अश्क़िया भी पिघल जाता।।
क़फ़स से क़ब्र तक बग़ैर मोहब्बत जिंदगी क़ैद ही रहता।
अजीज़ होता दर्द इश्क़ का, जब इश्क़ परवान चढ़ जाता।।
आब ए तल्ख़ के लिए यूँ ही बदनाम मयख़ाना होता।
गर गरज हो तिश्नगी का तो आसमाँ भी बरस जाता।।
ज़िक्र करूँ मैं उनका जो हर पल का हिसाब रखता।
गुज़ारिश भी उन्हीं से जो मन की मुराद पूरी करता।।
हुबाब ए हवस के शौकीन सुपुर्द ए ख़ाक होता जाता।
ख़ुदा की ख़िदमत जो करे बेड़ा उनका पार हो जाता।।
