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नविता यादव

Abstract

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नविता यादव

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जलधारा की पुकार

जलधारा की पुकार

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कई नामो से जानी जाती

गंगा, यमुना, सरस्वती कहलाती

चंचल है प्रवृत्ति मेरी

कभी शांत तो कभी बहुत शोर मचाती।


कल-कल कर बहती रहती

युगों-युगांतर तक जीवित रहती


पर्वतों पे जन्मीं मैं, झरना रूपी यौवन पायी

बन जलधारा अपने स्थान से निकली मैं

अपने प्रियतम सागर से मिलने चली मैं

राह पर राह बनाते चली डगर- डगर निकल पड़ी।


आई कयी अड़चन राह में मेरी

पर निरंतर प्रवाहित होती रही

पत्थरों, चट्टानों से टकराई

थोड़ा संभाली अपने आप को फिर

नयी राह बना अपने प्रियतम सागर से मिलन हेतु

बह चली, बह चली।


जाति-प्रजाति का भेदभाव नहीं मेरे अंदर

मेरी राह मै जितने भी लोग मिले

उनकी जरूरतों को पूरा करती

खेत- खलियानो को सहलाती

सबसे प्रेम मै करती, सबसे प्रेम मैं करती।


माना मै कुछ नहीं बोलतीं, पर दर्द मुझे भी होता हैं,

मैं भी रोती हूँ, अपने आसूँ अपने ही जल से धोती हूँ,

मुझे माँ कह तुम पुकारते हो

मुझें देवी मान तुम पूजते हो।।

और मुझे ही गंदगी की चादर से ढकते हो

मेरे दामन को ताड़-ताड़ करते हो।


पर आज एक विनती मैं तुमसे करती हूँ

पूजा न करो मेरी, सम्मान करो

मेरे तट पर बैठ, मुझे अपनी माँ जैसा प्यार दो

मेरी आरजु बस इतनी हैं,

मेरे आँचल को साफ़ रखों,

जहाँ- जहाँ से मैं निकलूं।


मेरा दिल से तुम स्वागत करो

और मेरी डोली को सजा कर

मुझे साफ़ और पवित्र रखनें का वादा कर

मेरे प्रियतम सागर के घर विदा करो।


मुझे भी जीने का हक हैं,

मैं नदी हूँ, मुझे नदी ही रहने दो

मुझे नाले के रूप में परिवर्तित न करो

मैं नदी हूँ मुझे नदी ही रहनें दो।


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