ज़िंदगी
ज़िंदगी
जिंदगी कुछ धुंधली कुछ शाम-सी ढलती है
स्याह रातों में खुद, गुमनाम सी जलती है।
खुद से ही फैसले कर सजा भी खुद दे लेते हैं
नाम की ये जहाँ, कभी बदनाम भी करती है।
यूँ तो कभी मैं पीता नहीं पर लड़खड़ाता हूँ
गम-ए-इश्क भी जब दर्द का जाम भरती है।
भीड़ में भी तन्हा, रहने की कसम खा ली
अपना होकर भी वो अनजान सी बनती है।
भीड़ में खो गया है लगता हर अक्स प्रियम
रुसवाई में तन्हाई अब निदान सी लगती है।