ज़िंदगी की कश्मकश
ज़िंदगी की कश्मकश
ज़िंदगी की कशमकश में
कुछ ऐसा उलझे हम
कुछ दुनिया हमको भूल गयी और
कुछ दुनिया को भूल गए हम
कब दिन ढला कब रात आयी
दैनिक कार्य-पिटारो में
अपनी सुध भी ना आयी
गमो में भी मुस्करा दिए
जान -बूझकर काँटों पर पग बढ़ा दिए
पर खुलकर कब हँसे
वो खिलखिलाहट तो भूल गए हम
जाने कैसी उलझी ज़िंदगी
सुलझाने में ,ज़िंदगी को
और उलझती गयी ज़िंदगी
फ़र्ज़, कर्ज़ और न जाने कितनी जिम्मेदारी
सीढ़ी दर सीढ़ी मंजिल चढ़ी ज़िंदगी
गिरकर फिसली, फिर उठ बढ़ चली ज़िंदगी
औरों को समझने में उलझे रहे
पर खुद को ही न समझे हम
ज़िंदगी की कशमकश में कुछ ऐसा उलझे हम
खुशियाँ चारों ओर बिखरी थी
हर जगह मृगमरीचिका सा दौड़े
मन की ख़ुशी न देखी
बाहरी चकाचोंध में उलझे हम
सबका साथ दिया, किसी को तन्हा न छोड़ा
फिर भी क्यों तन्हाई से दो-चार हुए हम
बस एक ज़िद थी, खुद से ही जीतने की
ना जाने क्यों खुद से ही हार गए हम !!
