गजल : इश्क की गलियां
गजल : इश्क की गलियां
इश्क की गलियों में आजकल उनका फेरा कम हो गया है
वो उफनता सा इश्क ए समंदर अब गुमसुम सा सो गया है
जो कहते ना थकते थे जी ना पायेंगे एक भी दिन तेरे बिन
वो पूनम का चांद अब इन अंधेरों का हमदम सा हो गया है
कोई रंज ओ गम अब दिल पर चोट करता ही नहीं है "हरि"
बेवफाई के तूफां से टकरा कर ये दिल बेदम सा हो गया है
हुस्न की गरमी से कभी जेठ की धूप सी सुलगती थी सांसें
हद ए इंतजार में पड़ा पड़ा ये बदन शबनम सा जम गया है
सुनते आये हैं कि हुस्न बड़ा नाजुक, नर्म दिल, शीशा सा है
शान ओ शौकत देखकर अब शायद बेरहम सा हो गया है
कभी डूबे रहते थे तेरी नशीली आंखों में दिलनशीं रात दिन
गम के पैमानों में खुद को डुबोकर हरि खत्म सा हो गया है।

