बातें उन दिनो की
बातें उन दिनो की


सुबह से शाम होती थी, बातें वो कितनी आम होती थी
कहे बिना तुम सब सुनती थी, खामोशी की भी जुबान होती थी
चुन लेती थी सपने सारे, हकीक़त से कितना रुठी रहती थी
भूलकर बात पीछले सोमवार की, बचपन की सब याद कहती थी
दबे पाँव चलकर गलियों में, सड़कों पर दौड़ा करती थी
ऊँचकर छूती थी पत्तियां पेड़ों की, फूलों से नाराज़ रहती थी
रखकर कोहनी किताबों पर, किरदारों से उलझा करती थी
टकराकर घर की डेरी से, खिड़की पर सब ख़्याल टांगे रहती थी
कितनों के ज़हन में थी तुम, कितनों को तुम्हारी तलाश रहती थी
पूछकर पता रास्तों का, मंजिलों से दूर रहती थी
करते हैं सवाल किस्से वो सारे, कभी जिनमें तुम रहा करती थी
बातें हैं ये उन दिनों की, जब तुम से ज्यादा तुम हुआ करती थी
सुबह से शाम होती थी, बातें वो कितनी आम होती थी
कहे बिना तुम सब सुनती थी, खामोशी की भी जुबान होती थी!