वर्षा और मैं
वर्षा और मैं
झरोख़े को खोल दिया
भीतर आ गये तुम
किश्तों में छू गए मुझे
भीग रही थी मेरी
अंजली का आकाश ।
झरोख़े के बाहर
तुमने दिखाया था बूँदों को
गिर रहीं थीं एक दूसरे को
छूने के लिए
तुम तो समुद्र में मिलोगे
बोलकर , ले गए बचपन की
कागज की नाव को।
रह गई मैं
आधे अधूरे स्वप्न के साथ
ढूँढ रही थी,
उस रात की कहानी में
भीगे हुए शब्दों को।
नि:शर्त प्रेम है मेरा
निर्विकार तुम
अगर चाहो, परीक्षा ले लो
इसी रात की,
नहीं यहाँ कोई प्रतारणा
न कोई स्वप्न
अगर है तो सिर्फ एक कहानी
प्रतीक्षा की !इंतज़ार की !

