आत्मा का हनन
आत्मा का हनन


बैठा पंख समेटे शुक
अनमनी दीख रही सारिका
भला ऐसी वितृष्णा क्यों उससे जो
कल तक थी हृदयाकाश की तारिका !
चुप हो गया आज अचानक पपीहा
गूँज रही नहीं उसकी पीहू-पीहू
मोरनी बैठी शान्त, सोच रही यह मन में
दुःख अपने दिल का मैं किससे कहूँ .
उदास बैठा चकोर अँधेरे कोने में भींच कर जोर से
आँखें कर देने को ओझल नज़रों से चाँद को
बुझा रहा अपनी प्यास आज चातक नदी के सादे जल से
क्या आस नहीं शेष या भूल गया स्वाति की बूँद को .
नहीं समेट रही अपने आँचल में
कोई लैला मजनू पर चलाये गए पत्थर
नहीं काट दुर्दाम पर्वत बहा रहा नहर
कोई फरहाद शीरी को पाने को हो तत्पर .
इंगित कर रहीं
ये विडम्बनाएं किस ओर
मेघाच्छादित है आकाश, हो
रही नहीं क्यों नयी भोर !
ख़त्म हो गया क्या प्यार इस संसार से
बह नहीं रही स्नेहधार किसी भी द्वार से .
क्या सूख गयी हैं नदियाँ प्रेम की
या हो गया है ह्रदय का मशीनीकरण
भूल गया मानव अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति
हो गया क्या उसकी आत्मा का हनन !