ग़ज़ल - न ही रात दिन की चिंता
ग़ज़ल - न ही रात दिन की चिंता
ग़ज़ल - न ही रात दिन की चिंता
न ही रात दिन की चिंता न ही सुब्ह-शाम देखा।
मैंने भूल कर सभी कुछ ये ख़ुशी का जाम देखा।
हो सके तो माफ़ करना मेरी बंदगी है ऐसी,
जो लिखा गया खुदा तो, मैंने उसका नाम देखा।
न चमकते सोने चाँदी, न दमकते हीरे मोती,
जहाँ गिर पड़े पसीना, वहीँ पर निज़ाम देखा।
न ख़ुशी बची है कोई न ही ग़म का है ठिकाना,
न ही ख़्वाहिशें हैं दिखतीं जो ये दिल तमाम देखा।
वो भला है क्या जवानी जो नहीं बने कहानी,
भले ज़ख़्म हैं पुराने मैंने इल्तियाम देखा।