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Ajay Singla

Fantasy

4  

Ajay Singla

Fantasy

जिज्ञासु मैं

जिज्ञासु मैं

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299


सपना मेरा मैं उड़ूँ गगन में 

मेरे चक्षु देखें वन वन में 

देखें हरिण कुलाँचे भर रहे 

सिंह की दहाड़ से सभी डर रहे।


चन्द्रमा की थोड़ी चाँदनी ले लूँ 

इंद्रधनुष के रंगों से खेलूँ 

भगवान ने ये सब प्रकट किया है 

सतरंगी दृश्य ये हमें दिया है।


सपना कि मैं समुंदर में जाऊँ 

गहराई उसकी नाप के आऊँ 

गर्भ में उसके क्या छिपा है 

देखने की मेरी इच्छा है।


मत्स्य, मगर और जीव ये सारे 

बड़े जीव छोटों को खा रहे 

दूर दूर तक जल ही जल है 

यहाँ तो लहरों की छल छल है।


बर्फीली चोटियाँ ये हिमालय की 

मेरे मन को मोहित सदा करतीं 

सोने सी छटा इनको दे जाती

लाल लालिमा ढलते सूर्य की।


रहना चाहता इस दिव्य पर्वत पर 

चाहता हूँ मेरा यहाँ हो एक घर 

सुबह सुबह देखूँ खिड़की से 

वृक्षों पर पंछी चहक रहे।


जिज्ञासा जाऊँ अंतरिक्ष में मैं

इसकी तो सीमा अनंत है 

ब्रह्माण्ड का विस्तार कितना है 

कहाँ तक ये फैला हुआ है।


असंख्य उल्कापिंड और तारे 

क्षण क्षण आपस में टकरा रहे 

क्या ये धरती पर भी होगा 

मिट जाएगा अस्तित्व मनुष्य का।


आकाश, जल, नदिया पर्वत ये 

और कहाँ ये सिवा पृथ्वी के 

शायद हम सौभाग्यशाली हैं 

कि ये वस्तुएँ बस हमें मिली हैं।


धरती के कोने कोने में जाकर

खूबसूरत जो भी वहाँ पर

नयनों में भर लूँ सुंदरता सारी 

बड़ी अद्भुत पृथ्वी हमारी।


पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण 

सभी और खिंचता मेरा मन 

शायद कम है एक जीवन भी 

देखने को देश, द्वीप सभी।


प्रकृति की गोद में आनंद मैं पाता

शहर मुझे अब नहीं है भाता 

जानता हूँ कि ये एक स्वप्न है 

फिर भी ये सपने जीना चाहता मैं।


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