STORYMIRROR

Mukesh Nirula

Abstract

4  

Mukesh Nirula

Abstract

जीवन सफर

जीवन सफर

1 min
390

मेरी अपनी की किस्मत मेहरबान है 

पर पड़ोसी की नज़रें परेशान हैं 


मुझ को जो कुछ मिला मैं तो खुश था बहुत 

इस में कुछ न किसी का भी नुकसान है 


जब भी गम थे मिले मुझ को दुःख था बहुत 

अब तलक सूखे अश्कों के निशान हैं 


था अँधेरा घना और न ही जुगनू मिले 

फिर भी कम न हुए मेरे अरमान हैं 

 

मेरी हर राह पर सिर्फ कांटे ही थे 

पाँव पर छालों के दिखते निशाँ हैं 


मुझ को खुद पर भरोसा सदा ही रहा 

मील का हर पत्थर भी हैरान है 

 

अपनी मंज़िल पर दिखता हूँ तन्हा मगर 

क्यों यही अब बनी मेरी पहचान है।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract