परवरदिगार
परवरदिगार
1 min
196
खत मुफलिसी में लिखता रहा परवरदिगार को
अब तक न पाया कोई भी तीमारदार को
खिज़ा की दौर था तो परेशान मैं रहा
इल्ज़ाम देता रहा था अक्सर बहार को
माँगने पर भी जब किसी ने रहम न किया
देता रहा था दोष उस के दयार को
किस्मत में मेरी था लिखा लोहा ही खुदा ने
था कोसता रहा था मैं तो उस सुनार को
कटती ही जा रही है तन्हा यह ज़िन्दगी
मरने पे भेज देगा वो शायद कहार को
