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Vandana Singh

Abstract

4.8  

Vandana Singh

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जीवन चक्र

जीवन चक्र

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किस आदत से मजबूर है जिंदगी

आँखें बंद कर के

जाने किस के पथ पर

बेतहाशा चलती ही जाती है


रुक कर पल भर भी

सोच नहीं पाती

क्या सही क्या गलत है

हल्के से हाथों का सहारा

पाती नहीं

कि पानी सी मुड़कर

राह बदल लेती है


कुछ वक़्त की आंधियाँ आती है

कुछ रेत सा जम भी जाता है

फिर उन्ही रेतों से टीले बनने लगते है

कि फिर कोई बर्फ का तूफ़ान

उमड़ पड़ता है


और इसी उधेड़बुन में

जीवन के साँझ का पता ही

नहीं चलता

लोग यूँ ही आते जाते रहते है

कुछ बनता है तो कुछ बिगड़ जाता है

और बनता ही बिगड़ने के लिये होता है

फिर आता है पूर्ण विराम, शांत,

निःशब्द, सुकून

और फिर पहर का दूसरा चक्र..।



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