जीत का जश्न
जीत का जश्न
वो बुझी आग फिर से धधक रही ,
देख– देख यह पगडंडी मंजिल को जाती है,
कह दो अंधियारों से फिर से आलोक छाएगा ,
अभी कच्ची झोपड़ी में आशिया बना रहे हैं ,
बोली लग गई हमारी नीलामी कर लो ,
वरना बहुमूल्य में पार कहां पड़ोगे, तुम !!
कम किराए में नैया से समंदर पार करवा देंगे ,
बैठे– बैठे कब तक खोओगे, तुम !
संग चलो तो हमारी सारी सीढ़ियां गिनवा देते,
अटूट पतवार लिए चल पड़े मंजिल को,
फिर से पताका शिखर में गाड़ेंगे ,
कफ़न बांधकर खड़े है मंजिल के राही ,
हारे कहां अभी जीत का जश्न मना रहे ।
कर लो मस्ती इन कश्तियों की ,
सड़क पर चल रही भीड़ में चला हु ,
पारखी बहुत हूं अपनों को पहचाना ,
अनजान घोंसले में घुसकर अपने कैसे होते यह मैने जरुर जाना है,
खेवटिया है हम भी फिर नैया पार उतारे ,
आए थे शहर में गिन गिन दिन गुजारे ,
यही शहर से इश्क है ढलती शाम को ,
कमजोर थे चोटे सहकर शीला बन गए ,
अब तो मूर्तियां बनवा लो पूजे जाएंगे हम भी ,
खुली किताब थी बंद पड़े पन्नों को कौन छूना जानते हैं ,
कलम चलाकर एक नया अध्याय लिखना चाहते हैं ,
जौहरी बना हु जेवरातों का सारे खोटे निकले ,
अब ऋण की किस्तें भरते –भरते दिन डुबोते है ,
मेहनत का तोड़ नहीं जारी रखी है ,
जर्जर मकानों में निशि दिवस सपने संजोये,
संजोए सपनो को सहारा देकर उड़ान भरी,
चले थे मंजिल को मुसाफिरों से मुलाकाते होती गई ,
पहुंच गए घाट पर जहां अपने खड़े थे ,
कछुए की चाल चले खरगोश की तरह चल रहे ,
जो अनदेखा करने थे उनको देखने उतर आए ,
बेसर हो गए ताने अनसुने सुन रहे ,
चले हवा के साथ लहरों से बगावत कर बैठे ,
सुना है नदी में बहा सागर में मिल जाते हैं,
बड़ा अपार है सागर गिरते उठते बैठते किस ओर चले है ,
दो नाव पर पांव रखकर एक ही तट से गुजर रहे ,
जज्बातों की तामील से खुद को संवारा है
नई जवानी का नया सवेरा है ,
हारे तो नहीं है जीत का जश्न मना रहे हैं जीत का जश्न मना रहे हैं ।
