हारे कहां....
हारे कहां....
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वो बुझी आग फिर से धधक रही ,
देख देख यह पगडंडी मंजिल को जाती है,
कह दो अंधियारों से फिर से आलोक छाएगा ,
अभी कच्ची झोपड़ी में आशिया बना रहे हैं ,
बोली लग गई हमारी नीलामी कर लो ,
वरना बहुमूल्य में पार कहा पड़ोगे, तुम !!
कम किराए में नैया से समंदर पार करवा देंगे ,
बैठे बैठे कब तक खोओगे, तुम !
संग चलो तो हमारी सारी सीढ़ियां गिनवा देते,
अटूट पतवार लिए चल पड़े मंजिल को,
फिर से पताका शिखर में गाड़ेंगे ,
कफ़न बांधकर खड़े है मंजिल के राही ,
हारे कहां अभी जीत का जश्न मना रहे ।
हारे कहां अभी जीत का जश्न मना रहे।।
