झूठा सनम !
झूठा सनम !
उसने कहा, वो मेरा दिया मेरे नाम का सिंदुर ही लगाती है
और मैं सिंदुर के बदलते रंग में, उसका झूठ पकड़ता रहा
किसी और के बिस्तर में कब का, दम तोड़ चुकी थी मुहब्बत
और मैं दिवाना उसी मुहब्बत में, दिन रात तड़पता रहा
मैंने कभी कहा नहीं उससे, और वो समझी मुझे पता नहीं
बस हर वक्त अपनी भीगी पलकों का, बहाना बदलता रहा
जितना भी सह सकता था मैं , हर वो दर्द मैने सह लिया
मासूम दिल ये मेरा, उस बेवफा की याद में धड़कता रहा
जितनी थी शिकायत, सब अपने दिल से मैंने कह लिया
दब गया जो दर्द सीने में, बनके शोला ताउम्र भड़कता रहा
दिल पागलों सा छटपटाता रहा, कुछ युँ शितम तुने किए
हरगिज नहीं सह पाएगा, जो कहर हँस हँसके तु ढ़ाता रहा
शिकवा कैसा हो तुझसे कोई, मेरे दिल से ही नाराज हुँ मैं
इतना दर्दो गम जो देता रहा, क्युँ उसके लिए धड़कता रहा।