झुकती निगाहें
झुकती निगाहें
ना जाने कितने मौसम बीत गए,
अनायास ही मेरे होंठ सील गए!
जब भी देखता हूँ तेरी इस तस्वीर को,
किताबों के बीच अभी भी मौजूद हो!
याद है मुझे जब इसी तस्वीर को देखकर,
मेरे जुबान से कितनी गज़लें फिसल जाती थी!
और तुम यूँ शरमा कर नजरें झुका लेती थी!
वो दिन भी क्या दिन थे जब कालेज के कैंटिन में
घंटों बैठे बतियाते रहते थे!
तुम्हारे इन्हीं झुकती निगाहों का तो कायल था,
यूँ ही इन बिखरे लटों को देख दिल धड़कता था!
क्यों गई मेरा दिल तोड़कर,
मुझे यूँ तन्हा छोड़कर!
गलती बस यही की मैं उस दिन तुमसे मिलने नहीं आया,
पर एक बार मिलो तो सही सच बताऊंगा क्यों नहीं आया!
कैसे बताऊँ की तेरे बिन
कितना तन्हा हूँ और धड़कने भी खामोश हो गई!