जानें कहाँ गुम हो जाती है
जानें कहाँ गुम हो जाती है
पीहर की दहलीज़ पर खड़े बड़बड़ करती बड़बोली बेटी ससुराल की दहलीज़ पर कदम धरते ही मौन का चोला पहन लेती है..
मिटा देती है अपना अस्तित्व एक समझ को अपनाते नये सफ़र पर धारण करते नया वजूद प्रस्थापित करने समूचा खुद को बदल लेती है..
किसी भी किताब में कहाँ लिखी होती है ससुराल की परिभाषा हर मानस को समझते परिस्थितियों में ढ़लना पगली जानें कहाँ से सीख लेती है..
जन्मदाता से गिरह छुड़ाकर उम्र का पौना हिस्सा अजनबियों के साथ ऐसे काट लेती है जैसे जन्म-जन्म का रिश्ता हो..
बरगद की छाया में पली तनया सहरा से ससुराल को अपना कर दो कूलों का मान रखते, मुझे सब चलेगा बोलना सीख जाती है..
पति में पिता की परछाई ढूँढती, स्वामी की हर कमी खूबी को सर चढ़ाती उनके हर एक रंग में रंगती सरताज को अपना लेती है..
आती है जब पीहर में परी बदली-बदली सी लगती है पैर पटकते हर बात मनवाने वाली न जानें पिता को पराई सी क्यूँ लगती है..
उड़ती थी जो अल्हड़ चिड़िया चहकाती बाबुल का आँगन, पर कटी सी उलझी उलझी शादी के बाद क्यूँ लगती है..
खुद माँ बनते ही अपनी माँ के आँचल से बिछड़ जाती है बच्ची थी जो कल तक आज अपने बच्चों की दुनिया में खुद को खोते जानें कहाँ गुम हो जाती है।