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Chandresh Kumar Chhatlani

Fantasy

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Chandresh Kumar Chhatlani

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जादू का खाना

जादू का खाना

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चल जाती कोई जादू की छड़ी

मेरे सपनों से बाहर निकल कर।


छड़ी से निकलते सितारे देख पाते

वे सब भी, रोशनी नहीं जिनकी ऑंखों में।


मिल जाता महल उनको रहने के लिए

जो छिप जाते हैं किसी पेड़ के नीचे

बारिश-धूप से बचने को।


काश नाचने लगते वे सब,

चल नहीं पाते जिनके पैर।


पहन लेते वे सब महंगे कपड़े

पहनने को पास जिनके चिथड़ों के सिवा कुछ भी नहीं।


सोचता तो यह भी हूँ कि,

होता कुछ ऐसा भी

खा के जिसे खत्म हो जाती सबकी भूख

हमेशा-हमेशा के लिए।

काश! बना देता कोई जादू का खाना।



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