इस अजनबी शहर में ....।
इस अजनबी शहर में ....।
इस अजनबी शहर में
कभी फुरसत ही फुरसत
हुआ करती थी।
शाम के इंतज़ार में
कभी खिड़की झरोखों से
नजरें गढ़ाए
वक्त काट लिया करती।
तो कभी बालकनी में
घंटों लटके-लटके
सड़क पर आती-जाती
गाड़ियों के दंगल और
हाॅर्न की आवाजों से
दिल बहला लिया करती थी
इस अजनबी शहर में ....।
फिर भी आलम
ये हुआ करता था
वक्त गुजा़रे भी
गुज़रा न करता था
इस अजनबी शहर में ....।
दरवाजे पर हुई हर दस्तक से
खुश हो जाया करती थी
लेकिन देख घड़ी की सूरत
फिर सिहर जाया करती
दिल में होती धुकुड़ पुकुड़
बेवक्त न जाने कौन टपका होगा
इस अजनबी शहर में .....।
पास पड़ोस से न था इतना नाता
जो जाकर उनके घर
बिता आऊँ कुछ पल
इस अजनबी शहर में ...।
पेड़-पौधों से हो जाया करती थी
न जाने कितनी बातें
पत्तियाँ भी हिल हिल कर
जताती थी अपना साथ
इस अजनबी शहर में ....।
बना दिया अब मुझे
घड़ी की टिक टिक करती सुई
वक्त नहीं अब दो पल का भी
जो हो नसीब सुकून
इस अजनबी शहर में ....।
छूट गए कहीं वो खिड़की
झरोखे और बालकनी भी
जो हुआ करते थे मेरे अकेलेपन के साथी
इस अजनबी शहर में ....।