गुफ़्तगू
गुफ़्तगू


आज अरसे बाद
उनसे यूँ बात हुई,
कुछ उन्होंने कही,
तो कुछ हमने कही,
सिलसिला गुफ़्तगू का
यूँही चलता रहा,
कभी शिकवे-शिकायतों का
दौर चला,
तो कभी हकीकत बयाँ हुई
अपने जमाने की,
अचानक बातों - बातों में
पूछ लिया उन्होंने,
सुना है खूब लिखती हो तुम
क्या शब्दों में जड़ पाओगी मुझे,
भावनाओं को मेरी क्या
कागजी धरातल दे पाओगी,
महलों का नहीं
कुटिया का सौंदर्य बता पाओगी,
तुम्हारी नहीं
मेरी जिंदगी को
क्या बयाँ कर पाओगी,
शब्दों में उतार पाना तुम्हें
मुकम्मल नहीं
मेरे लिए,
लहरों से उमड़ते भावों को
संजो पाना कहाँ मुमकिन है
मेरे लिए,
महलों और कुटिया में
फर्क होता कहाँ,
सौंदर्य आत्मिक है या बाह्य
यह भ्रम है तुम्हारी नजरों का,
सुख-दुख का एहसास होता है
यहाँ भी और वहाँ भी।