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Sher-E-Saahir

Tragedy

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Sher-E-Saahir

Tragedy

किंचित भी तू शर्मिंदा है ?

किंचित भी तू शर्मिंदा है ?

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किंचित भी तू शर्मिंदा है ?      

कहता तू खुद को ज़िंदा है?     


चहुँ ओर अंधेरा फैला है,      

डंस गया भुजंग विषैला है ।

मुख पे तो उजाला फैला है,

लेकिन अंतर्मन मैला है ।

औरों की धूल हटाने वाले,

तेरा आत्म पटल स्वयं गंदा है ।।  


किंचित भी तू शर्मिंदा है ?

कहता तू खुद को ज़िंदा है?


नातों का रहा सम्मान नहीं,

लगता सबको अपमान सही ।

सच्चाई का कोई मोल नहीं,

धर्म अब धन अनमोल नहीं ।

अच्छाई और सच्चाई का ,

व्यापार आजकल मंदा है ।।


किंचित भी तू शर्मिंदा है ?

कहता तू खुद को ज़िंदा है?


अनाचार है बढ़ता जाता,

सदाचार सहमता जाता ।

आदर्शो का अटल वो पर्वत,

शनैः शनैः पिघलता जाता ।

देखना तू चाहता ही नहीं ,

या जन्मजात तू अंधा है ।।

    

किंचित भी तू शर्मिंदा है ?

कहता तू खुद को ज़िंदा है?


हर ओर लूट ही लूट मची,

भाई भाई में फ़ूट मची ।

लोभ पाश में बंधकर अब,

मानवता न शेष बची ।

कफनों को भी देता बेच,

कैसा ये गोरखधंधा है ।।

   

 किंचित भी तू शर्मिंदा है ?

 कहता तू खुद को ज़िंदा है?


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