किंचित भी तू शर्मिंदा है ?
किंचित भी तू शर्मिंदा है ?
किंचित भी तू शर्मिंदा है ?
कहता तू खुद को ज़िंदा है?
चहुँ ओर अंधेरा फैला है,
डंस गया भुजंग विषैला है ।
मुख पे तो उजाला फैला है,
लेकिन अंतर्मन मैला है ।
औरों की धूल हटाने वाले,
तेरा आत्म पटल स्वयं गंदा है ।।
किंचित भी तू शर्मिंदा है ?
कहता तू खुद को ज़िंदा है?
नातों का रहा सम्मान नहीं,
लगता सबको अपमान सही ।
सच्चाई का कोई मोल नहीं,
धर्म अब धन अनमोल नहीं ।
अच्छाई और सच्चाई का ,
व्यापार आजकल मंदा है ।।
किंचित भी तू शर्मिंदा है ?
कहता तू खुद को ज़िंदा है?
अनाचार है बढ़ता जाता,
सदाचार सहमता जाता ।
आदर्शो का अटल वो पर्वत,
शनैः शनैः पिघलता जाता ।
देखना तू चाहता ही नहीं ,
या जन्मजात तू अंधा है ।।
किंचित भी तू शर्मिंदा है ?
कहता तू खुद को ज़िंदा है?
हर ओर लूट ही लूट मची,
भाई भाई में फ़ूट मची ।
लोभ पाश में बंधकर अब,
मानवता न शेष बची ।
कफनों को भी देता बेच,
कैसा ये गोरखधंधा है ।।
किंचित भी तू शर्मिंदा है ?
कहता तू खुद को ज़िंदा है?
