इंसान आधा अधूरा !
इंसान आधा अधूरा !
विकलांगता बन चुकी है अपनी पहचान,
मैं, एक आधा अधूरा इंसान !
जहां भी निकलता हूँ लोग मुझे नहीं,
मेरे लंगड़े पैर को निहारते हैं।
कुछ आश्चर्य से तो कुछ तरस खाकर,
तो कुछ शरारती बच्चों जैसा मुस्कुरा कर।
उत्सुकता से पूछते हैं मेरे बच्चे -
क्या डैडी ठीक से चल सकेंगे ?
हम लोगों के साथ दौड़ लगा सकेंगे ?
तसल्ली के लिए कह उठाती है मेरी बीबी -
हाँ, बेटे, हाँ !
इन सारे प्रसंगों से ना चाहते हुए भी ,
जुड़ा रहता हूँ मैं !
क्योंकि ....
प्रश्न भी मैं ही हूँ..
और ..
शायद उत्तर भी मैं !
