इन दिनों मैं लिख रही हूँ प्रेम
इन दिनों मैं लिख रही हूँ प्रेम
हां ! इन दिनों मैं लिख रही हूँ प्रेम !
बहुत लिख लिया दर्द
अब लिख रही हूँ प्रेम !
एक दूसरे की आंखों को पढ़ते हुए
एक दूसरे की हथेलियों पर
अपने-अपने नाम की रेखाओं को खोजते हुए
लिख रही हूँ प्रेम !
हां, इन दिनों मैं लिख रही हूँ प्रेम !
ठहर कर थोड़ी देर
उम्र के इस पड़ाव पर
आंज कर आंखों में
अमावस की रात का काजल
ओढ़ कर संभावना वाली धानी चुन्नी
भरी दोपहरी में पहाड़ी झरनों सी
खिलखिलाती हुई लिख रही हूँ प्रेम !
हां, इन दिनों मैं लिख रही हूँ प्रेम !
अंतर्मन में दस्तक दे रहे अधूरे सपनों
और सावन की बारिश में छप-छप करते
अपने ही पैरों से निकली अंतहीन प्रेम की
ध्वनियों को सुनते हुए
अपने ही प्रश्नों के उत्तर में
लिख रही हूँ प्रेम !
हां, इन दिनों मैं लिख रही हूँ प्रेम !
लिखना चाहती हूँ
समुद्र के अनंत विस्तार में डूब रही
अपनी खामोशी से उठती
गडमड लहरों और गंगापार
काशी विश्वनाथ की गलियों में
उतर रही शाम के बीच गूँजते शंखनाद के साथ
लिख रही हूँ प्रेम !
हां, इन दिनों मैं लिख रही हूँ प्रेम !
लिखकर रखना चाहती हूँ सबसे छुपा कर
नहीं चाहती कोई परीक्षा
लिख पाऊंगी या नहीं
ये तो मैं भी नहीं जानती
फिर भी दोहराती हूँ अपनी ये इच्छा
बार-बार हर बार
हां, इन दिनों मैं लिख रही हूँ प्रेम।