अब वो लिखेगी अपने लिए
अब वो लिखेगी अपने लिए


आज कलम उठाते ही
पहली बार उसने
अपने पक्ष में फैसला सुनाया
पहली बार तय किया कि
अब वो लिखेगी
अपने लिए।
आज जब वर्षो का रुका हुआ प्रवाह
अपनी सब सीमाओं को तोड़कर
बड़े वेग से, पूरी स्वतंत्रता के साथ
दूर-दूर तक फैल जाना चाहता हो।
यादों की तपती लू और
दर्द के उमड़ते घुमड़ते-चक्रवात के बीच
घिरे सारे शब्द
जब बाहर निकलने को आतुर हो
तो ऐसे में जरूरी हो जाता है
खुद से एक मुलाकात।
आज लंबे अरसे बाद
वो उतरती है अपने भीतर
और खोजती है
उन स्मृतियों को
जिसे उसने खुद को बेचकर खरीदा था
और बड़े ही जतन से
संभाल के रखा था।
पर ये क्या
यहां तो सारे शब्द गायब थे
वह हँसी ऐसा कैसे हो सकता है
कल तक तो यहीं थे
फिर आज गायब
नहीं ये नहीं हो सकता।
एक सि
हरन सी हुई
मन मानने को तैयार नहीं हुआ
होंगे यहीं कहीं
देर तक टटोलती रही
खोजती रही।
बहुत खोजने पर
कुछ शब्द मिले
पर अधूरे अनगढ़े से
कुछ की लाशें मिलीं
वहीं कुछ शब्द
पार जाने की चाह में
अधमरे से हो गए थे।
कुछ शब्द खमोशी का जामा पहने
छोड़ गए थे
अपने होने के निशान को
उसके मन का समुद्र-मंथन
अनवरत जारी था।
तभी अंदर से आवाज आई
सुनो !
क्या खोज रही हो और क्यों
जानती तो हो न !
कि आदमी हों या शब्द
एक न एक दिन तो मरते ही हैं।
तो बंद करो ये खुद को
खोजना और टटोलना
मुक्त हो जाओ उन स्मृतियों से
आवाज कुछ जानी पहचानी सी लगी
ये तो अंतरात्मा की आवाज है
वह रुक गई।
भीतर उसके कुछ दरकता जा रहा था
शायद ईमानदारी से किया हुआ प्रेम !