कृषक बने मजदूर
कृषक बने मजदूर
कृषक मजदूर होते जा रहे हैं।
ज्यों ज्यों बढ़ रहे हैं कंक्रीट के जंगल,
वह अपने खेत खोते जा रहे हैं।
कृषक प्रवासी होकर जा रहे हैं।
ग्राम खाली होते जा रहे हैं।
वह मेहनतकश मस्तमौला,
जो कभी मालिक थे अपने खेतों के,
आज किसी मालिक के अधीन होते जा रहे हैं।
कृषक मजदूर होते जा रहे हैं।
प्रवासी मजदूर घर से दूर, थक कर चूर,
कितने मजबूर और कितने अकेले होते जा रहे हैं।
भौतिकतावाद की अंधी दौड़ में वह भी दौड़े जा रहे हैं।
कृषक मजदूर होते जा रहे हैं।
जो अपने हाथ से उगाते थे बीज
और लहलहाती थी फसलें,
एक समय था जो खिलाते थे भोजन सबको, आज दो समय के खाने के लिए भी मजबूर होते जा रहे हैं।
कृषक मजदूर होते जा रहे हैं।
गांव से पलायन हो रहा है।
कृषक का भाग्य क्यों सो रहा है?
बनती जा रही है ऊंची ऊंची इमारतें,
कृषक को देखो मजदूर बन के पत्थर ढो रहा है।
कोई तो रोको यह पलायन,
कंक्रीट के जंगल उगने ना दो।
वह मस्ती भरे पल
वह खुशियां छोटी-छोटी, आधुनिकता की आड़ में,
भौतिक सुखों की चाह में
इन्हें खोने ना दो।