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Nanda Pandey

Abstract

4.6  

Nanda Pandey

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एक कहानी

एक कहानी

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 आज अपने घरौंदे में लौटते ही ऐसा लगने लगा आज वह वो नहीं जो पहले थी

मन, क्यों जा रहा है दश्वमेघ घाट की तरफ

आंखों के सामने क्यों आ रहे हैं लकड़ियों पर सुलगते जिस्म

मांस जलने की गंध धुंए का कालापन और इन सबके साथ भीग रही है उसकी पलकें

एक कहानी जो मिट कर भी सहसा जन्म ले उठी है

एक दर्द जो उसके दिल को मरोड़ कर रक्त चूसने को आतुर है

तिलमिलाहट बढ़ रही है जान लेवा टीस सारे शरीर में

बरसाती बिजली की भांति भीतर ही भीतर कौंध रही है

मिटा कर अपने उर से पाने और चाहने के भाव को देख रही है

कि आकाश ने भी अपने वक्ष में भिंची रजनी को हल्के से मुक्त कर दिया है

पवन भी आकाश से मुक्ति पाते ही ,वसुधा से आ लिपटा है

अपने विचारों को अपने शब्दों में पिरो कर एक एक शब्द को

आप चबा कर काली रात के गहरे सन्नाटे में चुपचाप बंद

उसकी आंखें चिता पर जलती लाश को देख रही है......!






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