कठपुतली
कठपुतली
कठपुतली हूं मैं,
मृदंग के बोल पर
नाचती कठपुतली
मेरे हर अंग में
प्रेम का आवेग
पर्वतीय सरिता की तरह
तब तक बढ़ता जाता है
जब तक कि मैं,
उसकी गहराई में
आकंठ तक डूब नहीं जाती
मैं प्रेम के सर्वोच्च शिखर को
अपने आलिंगन में
बटोरना चाहती हूं
विडम्बनाएं कि
डोर दूसरे के हाथों में
होते हुए भी
मुझे, मेरे पैरों में
संतुलन बनाये रखना आता है
अपनी हर परिस्थिति पर
मेरी पकड़ मजबूत है
शंशय और अनिश्चय के&nb
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हर भाव को
शारद के सूखे पत्तों की तरह
झाड़ना आता है मुझे
उलाहना, राग और विराग के
छोटे-छोटे भंवर में डूबे
मेरे मन की सांकल को
जिसने भी खटखटाना चाहा
सांकल टूट कर
उसी के हाथ आ गई
मेरे अंदर की नदी में
इतना उफान
इतना तूफान
इतनी खुशी
इतनी उदासी और
इतनी छटपटाहट है
कि काश !
इन सबके पार जाने के लिए भी
कोई डोर होती
मुक्ति की डोर
कठपुतली के अंदर की पीड़ा
कसती है फंदे हम सबके गले में।