उसका आना अब अच्छा नहीं लगता है
उसका आना अब अच्छा नहीं लगता है
उसका आना
अब अच्छा नहीं लगता है
अचंभा लगता है
किसी बहेलिए की तरह
उसका आना
आकर, जाल बिछा कर
बेखबरी में खुश होकर
लौट जाना
अब अच्छा नहीं लगता है
उसका आना और
आकर
मेरे सवालों के जबाब में
अपने ही सवालों से
मेरे मन की दहलीज पर
दस्तक देना
अब अच्छा नहीं लगता है
मेरी कोमल उम्मीदों के
समंदर में तैरते चुप्पी के
उस अक्स में सराबोर
उड़ती हुई नींदों का करवट लेना
अब अच्छा नहीं लगता है
अब अच्छा नहीं लगता है,
केंद्र और परिधि के बीच भटकते,
मध्यायन के सूरज का
अपने ताप से
मुझ पर आक्रमण करना
हां !
उसका आना
अब, सचमुच अच्छा नहीं लगता है।