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Anjneet Nijjar

Abstract

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Anjneet Nijjar

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इक कोना

इक कोना

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इस पूरे कुल ज़हान में,

मेरे पास कहने को ख़ुद का इक

अदद कोना भी नहीं है,

आख़िर कब तक इस ज़हान में

भटकूँगी मैं बिना किसी अपने कोने के,


अपने उलझे से कमरे का इक कोना,

मैं रख दूँगी तुम्हारे और अपने नाम,

कोना जो केवल हमारा हो,

गा सकूँ खुल कर जहाँ मैं,


जहाँ न हो डर किसी की घूरती आँखों का,

निर्दोष और उन्मुक्त हँसीं पर मेरी,

कोना,जहाँ जाना न पड़े चोरों की तरह,

न हो बोझ पायलों, बिछवों,लटकनों


नथ और शिंगार का,

कोना जिसे क़बूल हो,

मैं हूबहू, जितनी और जैसी हूँ,

जो न पूछे कोई सवाल और जवाब मुझे,

जहाँ सूरज की आशा क़िरणें,


खुल कर पड़ती हैं,

मन के अंधेरों और निराशाओं पर,

जाने कब होगा,

मेरे कमरे का वो कोना,


जो होगा सिर्फ़ हमारा,मेरा-तुम्हारा

जिसे मैं तुम्हारे साथ बाँट सकूँ,

क्या तुम भी ऐसा ही कोई कोना,

बना रहे हो मेरे लिए,

जो होगा सिर्फ़ मेरे लिए ?


चलो, दोनों मिल कर,

इक साँझा कमरा बनाए,

जिसका हर कोना हो,

तेरे लिए और मेरे लिए।


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