इजहारे इश्क़
इजहारे इश्क़
चाहतों को अपनी, कोरे कागज पर वो लिखता था,
एक लडका था शर्मिला सा, एक लड़की पर वो मरता था।
जब -जब भी वो कभी, उसकी गलियों से गुजरता था,
नाम लेता था खुदा का वो, उसकी बंदगी वो करता था।।
मन में बना कर ख्वाब नये, उनके सहारे जीता था,
जिंदगी बन गयी थी वो उसकी, बस इजहार से डरता था।
एक दिन सवार हुआ फितूर उसकों,
सोचा कब तक मन को समझाऊँ ?
इससे तो कहीं यह अच्छा हैं,
वो ना कह दे, मैं मर जाऊँ।
पूरी भी ना हुई थी अभी मन की कल्पना उसकी,
दूर कहीं से कदमों की आहट आयी,
विश्वास ना हुआ, जो मुडकर देखा,
सामने खड़ी थी वो, कुछ हर्षायी।
बोली ,तुम करते हो, काम कई
पर इश्क़ तुम्हारे बस की बात नहीं।
रोज मेरे गलियारे में,
सैकड़ों चक्कर लगाते हो,
जानती हूँ करते हो इश्क़ बहुत,
पर कहने से क्यूँ घबराते हो ?
लडका, अवाक् सन्न हो, यह सुनता रहा,
जैसे मांगी मुराद हो गयी पूरी,
दोनों हाथ पकड़ बस इतना कह पाया
जानता नहीं, उस खुदा ने ये इश्क़ क्यूँ बनाया हैं,
मैने तो हर सांस में अपनी तुम्हें, चाहा हैं, तुम्हें माँगा हैं।
मन में खुशी की लहर सी थी, ख्वाहिशे पूरी हुई हर एक,
जिसे कहते हुए घबराता था,
पूरा हुआ उसका इजहारें इश्क़।

