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Madhu Gupta "अपराजिता"

Fantasy

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Madhu Gupta "अपराजिता"

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होली

होली

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कान्हा ब्रज में खेले है होली

राधा रानी बनी है तेरी हमजोली

कान्हा ने लिया है दोनों हाथों में गुलाल

राधा के हुए हैं दोनों गाल शर्म से लाल

देख राधा को कान्हा के मन में उठे हैं यह सवाल

बिना रंगों से ये तो हुई कैसे लाल

लगाऊं मैं इसको कैसे लाल गुलाल

मन में उठे हैं बार बार यहीं सवाल

छोड़ थाली गुलाल की लाल

पिचकारी में भरा है पानी लाल

राधा आगे आगे श्याम पीछे चले

चले उसका ना अब कोई मायाजाल

सारी सखियां हुई है बेहाल

संग कान्हा के खेल के होली गुलाल

नटखट बड़ा बना है आज ब्रिज का लाल

रंग रहा है सबको अपने रंग में लाल

छा रही है सभी के मनो में खुमारी बेमिसाल

हो रहे हैं सभी तन मन से लाल

कान्हा का मन है अभी भी बड़ा बेहाल

ढूंढे राधा का आंचल रंगने को लाल

घर घर जाए बन के अनाड़ी वो लाल

एक कोने में खड़ी है राधा शर्म से लाल

कान्हा ने पकड़ा है हौले से उसका हाथ

कर दी है बारिश रंगों की हरी और लाल

दोनों हाथों में भरा है फिर राधा ने गुलाल

कर डाला है कान्हा का तन - मन लाल

वृंदावन की गलियां हुई है खुशियों से लाल

होली है खुशियों और रगों का त्योहार

रंग जाओ उसी में सब आज लाल लाल...!! 



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