हमसाया
हमसाया
मैं तुम्हारे पथ की रज सी
तुम चाँद मेरे गगन के,
बिल्लौर सी जम जाती है कशमकश
तब मेरी ज़िंदगी के समुन्दर में ,
सर्च लाइट की जगह ले लेते हो
नभ की ओर नहीं देखती मैं
तुम्हारी आँखों में पा लेती हूँ
वो नेमत का घट..!!!
मेरे अंतहीन सफ़र में
धुँधुआते छप्परों को तोड़ कर
हमसाया से चलते हो
मेरा हाथ थामे
मेरे विश्वास का स्त्रोत हो तुम
कितना कुछ समेटूँ
व्याजहीन कर्ज़ को उतार नहीं पाऊँगी
तुम्हारे दिल के झरोखे से बहती
अपनेपन की हवाओं को सलाम..!!!
मेरी अलकों की झालर पर बैठी
तुम्हारी चाहत को चूम चूम कर
संचय करती हूँ
वेदना पर चंदन सी परत करती है
अविरत तुम्हारे ध्यान में उर
दीवानगी की परिधि को छूते
तल्लीनता में घुलता है..!!!
अब मौत से खौफ़ कहाँ
पूर्ण पुरुष की गामिनी हूँ
मरकर भी पाऊँगी,
अन्तिम आश्रय
तुम्हारी आगोश में फ़डफ़डाते
साँस छूटे बस इतना चाहूँगी।।

