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हिन्दी साहित्य की व्यथा

हिन्दी साहित्य की व्यथा

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मैं पड़ा हूँ

पड़ा ही रहता हूँ

क्योंकि मैं अब

पूरी तरह से

बूढ़ा हो चुका हूँ।


आँखें पत्थर हो गई हैं।

थी कभी जो आईना

हाथ भी लाचार हो चुके

दिखाते थे जो रास्ता

जुबान अब लडख़ड़ाने लगी

सुनाती थी जो कहानियां


मेरा वजूद तो अब बस

रह गया है सिमट कर

अपने ही अपने कंधों पर

आ गया है भार मेरा

बनता था जो मैं सहारा

सहारे की जरूरत मुझे अब


मैं रास्ता किसे दिखाऊँ

मंजिल दूर गई मुझसे

उठने की कोशिश करता हूँ

मगर थकान अन्तर्मन की ने

मुझे इतना थका दिया है

खड़ा होता हूँ चलने को

अगले ही पल गिर पड़ता हूँ

सोचता हूँ मैं मर मिटँू

मगर मरना भी सौभाज्य नही

मुझको मरने भी नही देते


सांस चैन की लूँ ये सोचूँ

ईधर-ऊधर से मुझे धधेड़ते

मेरी इस अन्तव्र्यथा को

तब ओर हैं भडक़ाते


जब मेरे जन्म दिवस को

धूमधाम से सभी मनाते

नाम दिया हिन्दी दिवस का

सभी नेता और लोगों ने

जमकर मेरी की बड़ाई


बाद में सभी ने जब

अपना-अपना काम संभाला

भूल गये मुझे सारे भाई।


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