हे सखि...!
हे सखि...!
हे सखि! रूठि गये पिय मोरे।।
कसिक मनाऊँ मानत नाहीं, जो कल तक थे भोरे।।
सुबह मनाऊँ, शाम मनाऊँ, विनति करूँ कर जोरे।।
जब जब बात करन को चाहूँ, लखत न मेरी ओरे।।
जस अजनबी बात करे कोई, वैसे भये पिय मोरे।।
सब सपने अब जलत दीखते, जो हिय रह्यौ बटोरे।।
हे 'आज़ाद' बस्यौ पिय हिय में, तडपावत मन मोरे।।