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हे भौतिकवादी मनुष्य ​!

हे भौतिकवादी मनुष्य ​!

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जब इस दुनिया में रखा था,

अपना पहल कदम,

मकसद तो था,

मिटा देना सबके गम।


लंबा सफ़र तय कर आए थे,

उस भगवान की शरण से,

अपनी माँ की गोद तक।


अपनी वाणी से तो,

हम परिचित थे ही न,

बातें करते दूसरों से,

हिला अपने हस्तक।


लगभग तीन-चार साल के होंगे,

पसंद आते थे खिलौने,

लगता, वही है हमारी दुनिया,

बस वही छोटे-से खिलौने।


संपूर्ण जीवन में,

कई चीज़ों से हुआ था लगाव,

कई तो टूट भी गए,

जब पड़ा उनपर दबाव।


यूँ ही कई चीज़ें आई,

और चली भी गई,

यह सिलसिला चलता रहा,

बचपन में शुरु हुआ,

और सदा चलता रहा;


परंतु यह समझ पाए,

केवल अपनी

आखरी साँसों में कि

मनुष्य भले ही कितना भी

हो जाए भौतिकवादी,


जिस प्रकार आए थे,

उसी प्रकार जाना है,

इन सब चीज़ों के बिना।


इसलिए इन चीज़ों से,

अधिक लगाव न जोड़कर,

मनुष्यों से जोड़ना चाहिए,

उनसे अच्छे संबंध जोड़ ने चाहिए,


क्योंकि उनके साथ बिताए हुए

लम्हों की यादें ही तो हैं,

जो हम साथ लेकर तो नहीं आते;

लेकिन साथ लेकर अवश्य जाते हैं।


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