प्रेम
प्रेम
प्रेम को परिभाषित करना
पूर्णतः मुमकिन ही नहीं !
क्या हज़ारों उपमाओं में,
प्रेम का पर्याय कहीं मिलता है !
लुभावने अतिश्योक्ति भरे लफ़्ज़ों से,
क्या प्रेम रूप कहीं खिलता है;
तो क्या सीमित है प्रेम महज़
लफ़्ज़ों की कसीदाकारी में !
या ये है इतना…असीमित,
नहीं उकेर सका कोई चित्रकारी में !
जो दिल को जितना भाता गया
वो उतना ही करीब आता गया;
जिसको जैसा महसूस हुआ
वो प्रेम वैसा लिखता गया,
कोई कल्पनाओं के सागर में
प्रेम बीजकोष बोता गया;
लेकिन अक्षरों में फिर भी
कहीं अधूरा ही रहा प्रेम,
कभी प्रेममय ब्रह्मांड की
प्रीत भी ये बतला गया;
किन्तु इन उपमाओं में आखिर
कौन देख पाया है प्रेम का मूल;
क्यूँकि आदिकाल से प्रेम लिखनेवाले
खुद भी प्रेम की खोज में रहे,
लेकिन अलग अलग स्वरुप में !
प्रेम तो अनुपम है,शाश्वत है,
शब्दों में कब बयां हो पाया,
ये तो हर अवस्था में व्यापत है,
क्यूंकि हर भाव इसमें समाया,
प्रेम में सहज जुड़ाव भी है,
प्रेम में असहज अलगाव भी है,
प्रेम व्यक्त है तो दबाव भी है,
प्रेम विरक्त है तो तनाव भी है,
प्रेम रिक्त है तो लगाव भी है,
प्रेम तृप्त है तो बदलाव भी है !
प्रेम एक अटूट कड़ी है… !
जिसकी वजह से जुड़े हैं सभी;
हर भाव समाहित है इसमें
लेकिन खुद में अधूरा है कहीं;
अति विस्तृत है शाखाएं इसकी,
परिभाषित करना मुमकिन नहीं;
जीवन में ये एक विकल्प है,
शायद सकारात्मक रहने का !