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Amit Kumar

Abstract Romance Classics

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Amit Kumar

Abstract Romance Classics

मामूली सी बात

मामूली सी बात

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आज दिल भर आया

एक दोस्त की बात पर

बहसों मुभाषा हो चली

एक मामूली सी बात पर

दिल और दौलत का

मसला सब जानते है।


इसी मसले पर हुआ कुछ ऐसा

जो अब जानते है

मंटो और ग़ालिब की

दुहाई देकर वो मुझे समझा रहा था

नाम मे क्या रखा है यह 

किसने कहा था वो बतला रहा था


महादेवी वर्मा को भी वो

पढ़कर आया था जयशंकर प्रसाद

निराला और सिगमंड फ़्राईड के

किस्से भी वो दोहरा रहा था

बुल्लेशाह को समझने में उसने

ज़ाया किया खुद को

फिर भी कबीर और मीरा को

वो दूर भगा रहा था


कहता था दिल का कोई मोल नहीं

मोल तो दौलत का है

मैं मन ही मन सुनकर

उसका अल्पज्ञान बस 

मन्द-मन्द मुस्कुरा रहा था


प्रेमचन्द के सम्बोधन को

जो दिल दे बैठा हो

रेगिस्तान के आल्हा से जो

रीसा बैठा हो

उससे मोल करते हो

निर्जीव वस्तुओं का


जो सोहनी और महिवाल की

रोशनी में चनाब के पानी संग

लैला और मजनू की दास्तान

अपने लबों पर सजाये बैठा हो

तुम क्या कहोगे मुझे बेघर

मैं खुद ही कहता हूं

मैं बंजारा हूँ साहिब !


बस मुहब्बत की ख़ातिर

सब छोड़ बैठा हूँ

और अब वो पा लिया है

जो तुम बुद्धिजीवी कभी पा न सकोगे

ज़रा गर झुकोगे जग में

तो यकीन मानो साधु !

बहुत ऊंचा उठोगे।


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