हाउस वाइफ
हाउस वाइफ


तुम करती ही क्या हो दिन भर घर वैठकर ,
सारा समय फेसबुक पर रहती हो।
एक खाना तक तो तुम बढ़िया बना नहीं सकती,
और अपने आपको हाउसवाइफ कहती हो।
बेटे के नम्बर कम आये हैं इस बार,
ना जाने तुम क्या पढ़ाती हो।
पढ़ी लिखी अनपढ़ हो तुम,
और मुझे दुनियादारी सिखाती हो।
प्याज़, लहसुन की बदबू लिए रोज़,
मेरे पास यूँ ही चली आती हो।
ना जाने क्या करती हो जो घर पर बैठकर,
ठीक तरह से सज-संवर भी नहीं पाती हो।"
हाउसवाइफ रोज़ सुनती है यह तानें,
रोती है अकेले में और फिर मुस्कुराकर ,
अगली सुबह काम पर लग जाती है।
स्वाभिमान जैसी कोई चीज़ नहीं होती उसमें,
वो घर को अपना समझकर ,
घर के सार
े काम करती है।
दीवार पर लगी घड़ी की तरह,
चलती है बिना रुके वो दिन - रात।
घड़ी कभी रुक भी जाये ,
मगर वो रुकती नहीं है।
घर अगर शरीर है , तो वो उसकी रीढ़ होती है।
पर पति की नजऱ में उसकी पत्नी,
कुछ ना करने वाली,
सिर्फ एक हाउसवाइफ होती है।
पैसों से रुतबा होता है।
पैसे नहीं कमाती वो,
उस पर पति की कमाई खाने का
लांछन लगाया जाता है।
हाउसवाइफ सुनती है रोज़ यह तानें,
फिर भी मुस्कुराकर काम करती है।
हाउसवाइफ ही है दुनिया में अकेली ,
जो दिन के 18 से 20 घंटे,
बिना छुट्टी के, बिना तनख्वाह के,
कोई शिकायत किये बिना,
पूरी निष्ठा के साथ काम करती है।