हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!


हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
तेरी बातों से,
तेरे जज़्बातों से,
तेरी मुलाकातों से।
हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
तेरी चाहत से,
तेरी आहट से,
तेरी मुस्कुराहट से।
हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
तेरी हँसी से,
तेरी खुशी से,
तेरी बेख़ुदी से।
हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
तेरे गम से,
तेरे हमदम से,
तेरी सरगम से।
हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
तेरे होने से,
तेरे रोने से,
तेरे खोने से।
हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
तेरे प्यार से,
तेरे इकरार से,
तेरे करार से।
हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
ते
रे ख्वाब से,
तेरे सबाब से,
तेरे नकाब से।
हाँ, मुझे फर्क पड़ता है!
लेकिन क्या तुझे फर्क पड़ता है?
मेरे सपनों से,
मेरे अपनों से?
क्या तुझे फर्क पड़ता है?
मेरे अपनेपन से,
मेरे अकेलेपन से?
क्या तुझे फर्क पड़ता है?
मेरे साथ से,
मेरे हाथों में हाथ से?
क्या तुझे फर्क पड़ता है?
मेरे मान से,
मेरे सम्मान से?
हाँ, तो चल न
किसी डगर में,
किसी अनजान नगर में,
सौंदर्य का एक महल बनाए,
विश्व के ऐश्वर्य से उसे सजाए,
एक - दूसरे के प्रेम में समाजाये,
दुनिया से ओझल हो जाये।
इश्क़ के आसमान में बन जाये एक तारा,
की छूट न पाए कभी साथ हमारा।