लास्ट बेंच
लास्ट बेंच
सुनो ! क्या याद हैं तुम्हे वो लास्ट बेंच
हाँ वही लास्ट बेंच जिस पर साथ बैठते थे हम
जहाँ से बांधे थे हमने कई धागे
प्रेम के, विश्वास के, मित्रता के
जहाँ आलू के पराठे के साथ बांटे थे सुख-दुःख
और बुने थे कुछ अधपके-कच्चे ख्वाब
इसी बेंच से शुरू किया था चलना
यही से सीखा था जिंदगी जीने का सलीका
इस बेंच पर सदियां सिमट जाती थी चंद घण्टों में
इन चंद लम्हों में थम जाती थी
यहाँ सँजोए थे सपने
और इन सपनों को मुठ्ठी में
भरने की खींचा था खाका
इसी लास्ट बेंच से नापा था
हमने सपनों का असीम आकाश
उड़े थे साथ इस आकाश को कब्जाने को
यहाँ सजाई थी हमने साथ मिलकर महफिले
बुना था यादों का एक सुनहरा ताना बाना
यही से चले थे हम दोनों
एक-दूसरे के हाथों में हाथ दिए
एक ऐसी अंनत यात्रा पर
जिसमें मेरी मंजिल तुम
और तुम्हारी मंजिल मैं होता था
पर आजकल उन राहों पर काँटे से उग आए हैं
जिनपर चलने के पक्के वादे तुमने मुझसे लिए थे
काटें जाने कैसे उग आए
शायद हमारे एहसासों की नमी में कोई कमी आ गयी है
या फिर या फिर हमने खुद बो लिए हो
ये काटें अपने अचेतन मन के निर्देशन में।
पर अक्सर उलझा लेते है ये काटें हमें
इनकी चुभन से अब
वो तकलीफ तो नहीं महसूस होती
पर हां बेचैनी कुछ ज्यादा सी होने लगी है।

