STORYMIRROR

DR ARUN KUMAR SHASTRI

Abstract

3  

DR ARUN KUMAR SHASTRI

Abstract

प्रारब्ध की दिशा

प्रारब्ध की दिशा

1 min
185

  

माथा ख़राब है अजि मेरा माथा ख़राब है 

मुझसे मत उलझना मेरा मन बेताब है।। 


जबसे हुआ हूँ पैदा मैं जिंदगी से लड़ रहा अपने पूर्व कर्म का मैं हिसाब सब दे रहा।।

जानता हूँ पागल नहीं हूँ प्रारब्ध की दिशा क्या किये थे कार्य अज्ञान से तब न था पता  

मन वचन और कर्म का बेढव हिसाब है माथा ख़राब है अजि मेरा माथा ख़राब है।। 

फेरिस्त क्या करेगी मुआफ़ी भी न मिलेगी भुगतूँगा सिलसिले से अब ये ही अजाब है 

माथा ख़राब है अजि मेरा माथा ख़राब है

मुझसे मत उलझना मेरा मन बेताब है।।


उल्फ़त के लुत्फ़ का साहिब स्वाद है गज़ब जिसने चख़ा नहीं , तो वो शख़्स है अज़ब।।

एक एक पल मेहबूब के साथ का देता बड़ा मज़ा हैरान क्यूँ है अब जो तुझको मिल रही सज़ा।।

माथा ख़राब है अजि मेरा माथा ख़राब है

मुझसे मत उलझना मेरा मन बेताब है।।


*बालक अबोध हूँ, मैं, मुझको तो होश ही नहीं कर दिया सो कर दिया, अब सोचता हूँ क्या।। 


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract