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Deepika Dalakoti Dobriyal

Classics

4.8  

Deepika Dalakoti Dobriyal

Classics

गुनगुनी धूप

गुनगुनी धूप

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गुनगुनी धूप के कंबल सी बनी हवा-

मर्तबानो में अचारों को कुछ सहलाएगी...

आने वाली रंगीली होली के मदहोश ये रंग-

अब चटपटी बर्फ़ीली चुस्कियाँ चुराएंगी...

एक नये रूप में सजाने को यह नव ऋतु,

सूत की थाने बाज़ारों में खुल जाएंगी!


या यह भी हो सकता है कि कुछ नाज़नीन,

कई और झीनी परतों में नज़र आएंगी...

फूलों की महक हवाओं में सांस छोड़ेगी...

फिर तितलियाँ गुलाबों को गुदगुदाएंगी...

गहरी साँस भरेंगे मजबूरी में जी...

कुदरत इत्र की शीशियाँ जब फुसफुसएगी!

कहीं आम के बौर की सौंधी सुरभि-

खास इस मौसम में पुनःजन्म पाएंगी!


कहीं तोतों की नुकिली सी चोंच,

फलों को कुतरता हुआ आप पाएंगी...

देख लेंगे इस मौसम के तेवर भी हम,

सब तरफ बसंत जब छींटे बिखराएगी...

पहाड़ी चोटियों की सफेदी कुछ कम होगी

बर्फ़ीली चोटियाँ किरणों में तन पिघलाएँगी

याद आ जाएगा हम को भी कोई प्रेम प्रसंग-

शक्ति कुदरत की, ओजस, जब जगमगाएगी!


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