दुल्हन...
दुल्हन...
कुछ सारंगी की रंगी धुन
कुछ संतूर का गुंजन
धड़कती ताल मृदंग की
उसमें बाँसुरी का संग
कभी पैरों से थप थप की
कभी अंगुली से इशारे कर
एक अद्भुत मूर्ति श्रद्धा की
जो चले तबले के इशारे पर
ये लिबाज़ की उठती लहर
और उसका रंग जो गहरा है
ये लहँगे का घेरा नहीं
मानो समय का फेरा है
काेनों में सुनेहरी ज़री
सजाती चुनरी का चेहरा है
सुरीली तान का बाना
एक कोमल भाव ठहरा है
इन आँखों का ये तीखापन
इन अधरों की बनावट ये
सुंदर संगीत में सन कर
कहती कथा बन नायक ये
ये घुंगरुओं की छम छम है
या बादल का गरजना है
ये बिंदिया की झिल मिल है
या फिर चंदा का चमकना है
ये रोशनी भानु की
जिन पर काजल का पहरा है
फैली है हर जगह देखो
सुनो यही सबका कहना है।