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गुमशुदा

गुमशुदा

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रातों को रोकता मैं तारे मगर,

पता उसका जैसे खुदा हो गया।

कहूँ भी मैं कैसे गुनाहगार उसको,

कातिल पे दिल फ़िदा हो गया।


अपनों के हाथों ही खाए थे खंजर,

जख्म तो हुआ गुदगुदा हो गया।

ऐसा नहीं सच ना संभला था हमसे,

कीमत बहुत थी जुदा हो गया।


रिश्तों को पकड़ना भी आसान नहीं,

था दिल के करीब, गुमशुदा हो गया।

अकालों का मंजर न थमता कहीं है,

फिर कहते हो क्यों नाखुदा हो गया।


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