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ग्राहक से उपभोक्ता तक का सफर

ग्राहक से उपभोक्ता तक का सफर

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औद्योगिक क्रांति ने देश में उत्पादन बढ़ाया है,

पर कंपनियों ने ग्राहक को उपभोक्ता बनाया है।


इस उपभोक्ता को विज्ञापन ने खूब रिझाया है,

किचन-बाथरूम के नल में पानी आए न आए,

सुंदरियों के बदन से साबुन के झाग ने मन को लुभाया है।


विज्ञापन ने बिन जरूरत को भी जरूरत बनाया ,है

जरूरत रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा व स्वास्थ्य हैं,

पर उपभोक्ता ने हवा पानी का दाम चुकाया है।


उपभोक्तावादी कुसंस्कृति ने हसरतों का नया तूफ़ान लाया है

सुंदरियों के बदन से साबुन के झाग ने मन को लुभाया है।


वे भी क्या दिन थे!

बहन की शादी में मिलकर उठाई थी चारपाई,

दावत के प्रयोग में आई जूठी पत्तल व कढ़ाई।


मिलकर करते थे काम, न पता क्या है मंहग

ाई

आधुनिकता ने अब है मंगाई टेंट से गद्दा व रज़ाई।


बाज़ार ने पसारे पैर, गाँव को भी आगोश में उठाया है,

इस टेलीवीज़न ने विज्ञापन को गाँव तक पहुंचाया है,

सुंदरियों के बदन से साबुन के झाग ने मन को लुभाया है।


क्या यही है हमारी गंगा जमुनी तहजीब,

हम भूलते जा रहे अपनी संस्कृति व इतिहास

कमाते खूब हैं फिर भी न है संतुष्टि का एहसास।


गर चाहिए संतुष्टि, उपभोक्ता से ग्राहक बनना होगा,

अपनी जरूरत को ही जरूरत समझना होगा,

इस टीवी के विज्ञापन के आगोश से उबरना होगा।


कभी तो अपने किचन व बाथरूम के नल में पानी लाना होगा,

गर आ जाए अपने नल में पानी, हमारे बदन में भी झाग होगा,

फिर क्यों सुंदरियों के बदन से साबुन का झाग मन को लुभाएगा।


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