गंगा तीर आज उद्वेलित सा है
गंगा तीर आज उद्वेलित सा है
मन व्यथित तन कंपित सा है
ये मंजर इतना कुत्सित सा है,
कुछ जीने के अरमान लिए
गंगा तीर आज उद्वेलित सा है।
ये राजा ने नयन बंद किए है
तो प्रजा में चुप्पी सी क्यों है,
कुछ अनहोनी की आशंका में
ये मन इतना व्यथित सा क्यों है।
ये काल आगोश में चले गए
जैसे भीषण नरसंहार हुआ,
ये अधजले,बिना सिर के शव
कुछ तो बाते करते ही होंगे ।
चंहुओर अंधियारा जो फैला है
ये शहर चिताओ से जगमग है,
लाशों के अनगिनत ढेर लगे
महलों का बनना जारी क्यों है।
एक रोज पीढ़ियां पूछेगी
ये शहर वीराना सा क्यों है ,
आंखों में एक सवाल लिए
हर शाम क्षोभ में गुजरेगी।